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श्री काली ककारादि सहस्रनाम स्तोत्र

भ गवान महाकाल की अभिन्न शक्ति हैं महाकाली। उपासकों के कल्याण के लिये भगवती पार्वती के दो रूप हो गये लालिमा लिया हुआ रूप भगवती त्रिपुर सुंदरी का है, और कृष्ण वर्ण का रूप भगवती काली का है। सभी देवियों में एकत्व है। देवी के सभी रूपों में अभेद रहता है। पूजा - अर्चना करने से व मंत्र जाप द्वारा मां काली की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है। मंत्र द्वारा भगवती काली की उपासना करने के लिये मंत्र दीक्षा की आवश्यकता होती है। लेकिन सामान्य आराधकों को, अदीक्षितों को स्तोत्रों का ही पाठ करना चाहिये।  यूं तो भगवती महाकाली को प्रसन्नता देने वाले बहुत से स्तोत्र हैं, परन्तु श्री काली सहस्रनाम स्तोत्र का महत्व इन सबमें श्रेष्ठ है। दीक्षित साधक भी पूर्णता हेतु अपनी साधना में सहस्रनाम स्तोत्र पढ़ते ही हैं। सहस्रनाम या शतनाम स्तोत्राें के माध्यम से सरलता पूर्वक साधना हो जाती है। इसमें नाम रूपी मंत्रों का जप तो चलता ही है; साथ ही एक ही देव के विभिन्न नामों को पढ़ते—पढ़ते मन में उन नामों का अर्थ चिंतन होने से उस देवता के स्वरूप गुण के विषय में कई भाव प्रकट होते हैं, देवता के बारे में कई विशिष्ट बातें ...


श्री हनुमान जी की स्तोत्रात्मक उपासना

भ गवान श्री राम के अनन्य भक्त श्री हनुमान जी की हनुमान चालीसा जगप्रसिद्ध ही है।हनुमान जी को प्रसन्न करके अभीष्ट फल पाने की लिए हनुमान चालीसा के अलावा भी कई स्तोत्र हमारे धर्म ग्रंथों में दिये गए हैं।  अन्य देवगण तो लीला करके अपने अपने धाम को लौट जाते हैं परंतु हनुमान जी ही ऐसे देव हैं जो अब भी धरती पर विराजमान हैं और साधना से प्रसन्न होकर यदा कदा किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष दर्शन भी दिया करते हैं। हाँ यह अवश्य है कि सभी को प्रत्यक्ष दर्शन मिलना अत्यन्त दुर्लभ है लेकिन हनुमदुपासक के अनायास ही कार्य सिद्ध हो जाया करते हैं।हनुमान जी की दया से भूत-प्रेत बाधा, शत्रु द्वारा किये हुए अभिचार प्रयोग, टोना-टोटका, ग्रह बाधा,  संकट,  रोग बाधा का तुरंत निवारण होता है , पुत्र पौत्र सम्पत्ति, सिद्धि की प्राप्ति, निरोगता की प्राप्ति तथा श्री राम जी के चरणों अर्थात मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। कब करें हनुमदुपासना? कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी   और  चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हनुमान जी की जयन्ती मनाई जाती है। कार्तिक कृष्ण १४ की अर्धरात्रि को हनुमान जी की व...


तारा महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

श्री रामनवमी के दिन अर्थात चैत्र शुक्ल नवमी को होती है भगवती तारा की जयंती । जिस प्रकार राम जी का नाम ही भवबंधन से तार देता है उसी प्रकार भगवती तारा नामानुरूप ही जीव को तारकर जीवन्मुक्त बना देती हैं। वैसे तो किसी भी महाविद्या की आराधना करो मोक्ष प्राप्त होता ही है। परन्तु तारा महाविद्या के तो नाम में ही मोक्ष छिपा है। कहते हैं महाविद्या में, देवियों में भेद न करे। काली तन्त्र में लिखा भी है- यथा काली तथा तारा छिन्ना च। या काली परमा विद्या सैव तारा प्रकीर्तिता एतयोर्भेद भावेन सिद्धिहानिस्तु जायते। अर्थात् जो काली महाविद्या हैं वही तारा महाविद्या तथा छिन्नमस्ता महाविद्या हैं। इनमें भेद भाव करने से सिद्धि की हानि होती है। महाविद्याओं की आराधना में स्तोत्र पाठ का विशेष स्थान है।  तारा महाविद्या के विषय में हम पहले एक आलेख में जानकारी दे चुके हैं। श्रीशक्तिसंगम तंत्र, छिन्नमस्ता खण्ड, नवम पटल में भगवती तारा की महिमा वर्णित हुई है -  कदाचिदाद्या श्रीकाली सैव ताराऽस्ति पार्वति।  कदाचिदाद्या श्रीतारा पुंरूपा रामविग्रहा॥ रावणस्य वधार्थाय देवानां स्थापनाय च ।  दैत्यस...


श्री मातंगी महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

भ गवती मातंगी की दस महाविद्याओं में नवें स्थान पर परिगणना की जाती है।  अक्षय तृतीया अर्थात् वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मातंगी महाविद्या की प्रादुर्भाव तिथि कही गयी है ।   नवरात्रि के अवसर पर भी मातंगी भगवती की उपासना की जाती है।  श्यामला, राजश्यामला, राजमातंगी, मातंगिनी, इन्हीं के नाम हैं। ये ही श्री ललिताम्बिका की मन्त्रिणी नामक शक्ति हैं। श्रीविद्या की उपासना में इनका भी मंत्र ग्रहण किया जाता है। अतएव श्रीविद्या उपासक भी इनकी आराधना करके पूर्णता पाते हैं।  भगवती मातंगी आराधक के सारे विघ्न, उपद्रव, बाधाएं नष्ट कर देती हैं ।  भगवती मातंगी अपने भक्त को सुन्दर आकर्षक वाणी,  विद्या तथा प्रचुर धन प्रदान करती हैं, देवी की कृपा से दुर्योग भी सुयोग में बदल जाता है। देवी मातंगी का आराधक सहज ही मोक्ष भी पा जाता है। देवी मातंगी को सुगन्धित पुष्प और खीर अर्पित करें।  मेरु तंत्र के अनुसार महाविद्या मातङ्गी की प्रीति के लिये प्रत्येक मंगलवार को उनका पूजन करना चाहिये; तत्पश्चात्‌ एक, तीन, पाँच अथवा सात कुमारियों को स्वादिष्ट भक्ष्यभोज्य ए...


भुवनेश्वरी महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

भ गवान अमृतेश्वर शिव की शक्ति भगवती भुवनेश्वरी महाविद्या है।सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि रूपी नेत्रों से भगवती हमें निरंतर देख रही है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भुवनेश्वरी महाविद्या का प्राकट्य हुआ था। अतः यह तिथि श्री भुवनेश्वरी जयंती तिथि के नाम से सुप्रसिद्ध है। भुवनेश्वरी जयन्ती के दिन भक्तिपूर्वक माँ की आराधना की जानी चाहिए। भुवनेश्वरी भगवती पर जिनकी आस्था है उन्हें अन्य दिनों में भी भगवती भुवनेश्वरी की नियमित रूप से आराधना करनी चाहिए। अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तिथि को विशेषकर भुवनेश्वरी महाविद्या की  आराधना करे।  आज के समय में श्री भुवनेश्वरी मन्त्र साधना हेतु योग्य गुरु मिलना कठिन हो सकता है, इसलिए जब तक दीक्षित होना संभव नहीं हो तो स्तोत्रों का पाठ करना चाहिए, दीक्षित व्यक्ति तो स्तोत्रों का पाठ करते ही हैं। भुवनेश्वरी महाविद्या के स्तोत्र तो बहुत मिलते हैं जैसे खड्गमाला, कवच, हृदय आदि..........कुछ को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।


श्री त्रिपुरसुन्दरी षोडशी महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना [श्रीविद्या खड्गमाला]

प्र त्येक धर्मशील जिज्ञासु के मन में ये प्रश्न उठते ही हैं कि जीव का ब्रह्म से मिलन कैसे हो? जीव की ब्रह्म के साथ एक-रूपता कैसे हो? इस हेतु हमारे आगम ग्रंथों में अनेक विद्याएँ उपलब्ध हैं। शक्ति-उपासना में इसी सन्दर्भ में दश-महाविद्याएँ भी आती हैं। उनमें महाविद्या भगवती षोडशी अर्थात श्रीविद्या का तीसरा महत्त्व-पूर्ण स्थान है, श्रीविद्या को सामान्य रूप से,  श्री प्राप्त करने की विद्या कह सकते हैं और आध्यात्मिक रूप से इसे मोक्ष प्राप्त करने की अत्यन्त प्राचीन परम्परा कहा जा सकता है। शब्दकोशों के अनुसार श्री के कई अर्थ हैं- लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, कुबेर, त्रिवर्ग(धर्म-अर्थ व काम), सम्पत्ति, ऐश्वर्य, कान्ति, बुद्धि, सिद्धि, कीर्ति, श्रेष्ठता आदि। इससे भी श्रीविद्या की महत्ता ज्ञात हो जाती है। राजराजेश्वरी भगवती ललिता की आराधना को सम्पूर्ण भारत में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जगद्गुरु श्री शंकराचार्य के चारों मठों में ( 1 . गुजरात के द्वारका में, 2. उत्तराखंड के जोशीमठ में स्थित शारदा पीठ, 3. कर्नाटक के श्रृंगेरी पीठ व 4. उड़ीसा के पुरी में) इन्ह...


धूमावती महाविद्या जयन्ती पर करें धूमावती शतार्चन

द स  महाविद्याओं में सातवीं महाविद्या देवी धूमावती को ज्येष्ठा लक्ष्मी अर्थात् लक्ष्मी जी की बड़ी बहन भी कहा जाता है। धूमावती महाविद्या का स्वरूप कृशकाय, वृद्धा   तथा विधवारूप है, उनके बाल बिखरे हुये हैं, ये जिस रथ पर बैठी हैं उसके ऊपर झंडा लगा हुआ है जिस पर कौए की आकृति विराजमान है। शूर्प धूमावती महाविद्या का मुख्य अस्त्र है जब सृष्टि के समापन का समय आता है तब अपने शूर्प में समस्त विश्व को समेट कर ये देवी महा-प्रलय कर देती हैं। धूमावती माँ शूर्प के साथ साथ मूसल नामक अस्त्र से भक्त के शत्रु का संहार करती हैं और जब भयानक रूप धारण करती हैं तब टेढ़े-मेढ़े दांत वाली हैं।  माँ धूमावती के मंदिर दुर्लभ ही हैं, मध्य प्रदेश के दतिया पीताम्बरा पीठ पर धूमावती महाविद्या का विग्रह स्थापित है जहां अनेकों श्रद्धालु  धूमावती  मां के दर्शन कर अपनी समस्याओं से मुक्ति पाते हैं। माँ धूमावती साधक के काम क्रोध, लोभ, मोह, घमंड, ईर्ष्या रूपी छः शत्रुओं का नाश करती हैं। माँ धूमावती को क्षुत्पिपासार्दिता कहा गया है, वास्तव में जीव को शिव तत्व का ज्ञान दिलाकर शिव में ही एकाकार ...


श्री शनैश्चर अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र पूजन साधना

भ गवान की अतिशय कृपा है कि ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से  हमको भविष्य में आने वाली बाधाओं का तो पूर्वानुमान होता है ही बल्कि सम्बन्धित ग्रह के उपाय से हम उन बाधाओं से मुक्ति भी पा सकते हैं।   जातक की कुंडली या ग्रह गोचर में शनि ग्रह के प्रतिकूल होने पर जातक को निम्न परेशानी रहती हैं - ऋण, दुःख, पैरों की तकलीफ, मन्दाग्नि, वात-वमन, शरीर में कम्पन, अकस्मात चोट-दुर्घटना, दीर्घकालीन, बीमारियां, शरीर की दुर्बलता, अपयश, मुकदमेबाजी में उलझाव, किसी से अकारण शत्रुता हो जाना और बुरी आदतें जैसे चोरी, सट्टा, नशे की लत लग जाना आदि कुप्रभाव देखने को मिलते हैं। कहा जाता है कि शनि ग्रह अपने आप किसी को परेशान नहीं करता बल्कि "दंडाधिकारी" होने से जातक को पिछले जन्म में किये गये बुरे कर्मों का फल देता है हम पिछले जन्म के कर्म तो नहीं बदल सकते परन्तु प्रायश्चित स्वरूप पूजा-साधना करके शनिदेव को प्रसन्न करके हम इस जन्म में आ रही बाधाओं से छुटकारा पा सकते हैं। ज्येष्ठ मास की अमावस्या  को शनिदेव का प्रादुर्भाव हुआ था इसलिए इस दिन शनि जयंती मनाई जाती है। शनि देव की अनुकूलता के लिए...


एकादशी व्रत के उद्यापन की विस्तृत विधि

व्र त एक तप है तो उद्यापन उसकी पूर्णता है। उद्यापन वर्ष में एक बार किया जाता है इसके अंग हैं- व्रत , पूजन , जागरण , हवन , दान , ब्राह्मण भोजन , पारण । समय व जानकारी के अभाव में कम लोग ही पूर्ण विधि - विधान के साथ उद्यापन कर पाते हैं। प्रत्येक व्रत के उद्यापन की अलग - अलग शास्त्रसम्मत विधि होती है। इसी क्रम में शुक्ल और कृष्ण पक्ष की एकादशियों का उद्यापन करने की विस्तृत शास्त्रोक्त विधि आपके समक्ष प्रस्तुत है। वर्ष भर के 24 एकादशी व्रत किसी ने कर लिये हों तो वो उसके लिए उद्यापन करे। जिसने एकादशी व्रत अभी नहीं शुरु किये लेकिन आगे से शुरुआत करनी है तो वह भी पहले ही एकादशी उद्यापन कर सकते हैं और उस उद्यापन के बाद 24 एकादशी व्रत रख ले। कुछ लोग साल भर केवल कृष्ण पक्ष के 12 एकादशी व्रत लेकर उनका ही उद्यापन करते हैं तो कुछ लोग साल भर के 12 शुक्ल एकादशी व्रत लेकर उनका ही उद्यापन भी करते हैं। अतः जैसी इच्छा हो वैसे करे लेकिन उद्यापन अवश्य ही करे तभी व्रत को पूर्णता मिलती है। कृष्ण पक्ष वाले व्रतों का उद्यापन कृष्ण पक्ष की एकादशी-द्वादशी को करे , शुक्ल पक्ष वाले व्रतों का उ...


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