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महाशिवरात्रि व्रत की महिमा व पूजा विधि

ह मारे हिन्दू धर्म में व्रतों का बड़ा ही महत्व बतलाया गया है। इनमें से भी सभी के द्वारा करने योग्य ' पञ्चमहाव्रत ' बतलाये गए हैं। इन पाँच व्रतों में से एक व्रत है- महाशिवरात्रि । महाशिवरात्रि का अर्थ उस रात्रि से है जिसका शिवतत्त्व के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। भगवान् शिवजी की अतिप्रिय रात्रि को ' शिवरात्रि ' कहा गया है। रुद्राभिषेक-शिवार्चन और रात्रि-जागरण ही इस व्रत की प्रमुख विशेषता है।  यूं तो प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है परन्तु फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी महाशिवरात्रि कहलाती है।


भीष्माष्टमी पर करें भीष्म-तर्पण

मा घ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी 'भीष्माष्टमी' के नाम से प्रसिद्ध है। महाभारत में वर्णन है कि भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान था।  माघ शुक्लाष्टमी तिथि को बाल ब्रह्मचारी भीष्मपितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राण छोड़े थे। उनकी पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है । इस दिन प्रत्येक हिन्दू को भीष्मपितामह के निमित्त कुश, तिल, जल लेकर तर्पण करना चाहिए, चाहे उसके माता-पिता जीवित ही क्यों न हों। इस व्रत के करने से मनुष्य सुन्दर और गुणवान् संतति प्राप्त करता है- माघे मासि सिताष्टम्यां सतिलं भीष्मतर्पणम् । श्राद्धं च ये नराः कुर्युस्ते स्युः सन्ततिभागिनः ॥


सारस्वतोत्सव पर जानिये सरस्वती जी की महिमा

भ गवती शारदा विद्या, बुद्धि, ज्ञान एवं वाणी की अधिष्ठात्री तथा सर्वदा शास्त्र-ज्ञान देने वाली देवी हैं। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में इन्हीं माँ वागीश्वरी की जयंती वसन्त पञ्चमी के दिन बतलाई गई है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को मनाया जाने वाला यह सारस्वतोत्सव या सरस्वती-पूजन अनुपम महत्त्व रखता है। सरस्वती माँ का मूलस्थान शशाङ्क-सदन अर्थात् अमृतमय प्रकाश-पुञ्ज है। जहां से वे अपने उपासकों के लिये निरंतर पचास अक्षरों के रूप में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित करती हैं। शुद्ध ज्ञानमय व आनन्दमय विग्रह वाली माँ वागीश्वरी का तेज दिव्य व अपरिमेय है और इनकी ही शब्दब्रह्म के रूप में स्तुति की जाती हैं। सृष्टिकाल में ईश्वर की इच्छा से आद्याशक्ति ने स्वयं को पाँच भागों में विभक्त किया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा एवं सरस्वती के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों से उत्पन्न हुईं थीं। उस समय श्रीकृष्ण के  कण्ठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ। ये नीलसरस्वती-रूपिणी देवी ही तारा महाविद्या हैं।


शाकंभरी भगवती हैं करुणहृदया व कृपाकारिणी (श्री शाकम्भरी साधना)

भ गवती शाकंभरी को शताक्षी देवी के नाम से भी जाना जाता है। पौष मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को इन्हीं शाकम्भरी माँ की जयन्ती मनाई जाती है । देवी भागवत में वर्णन है कि राजा जनमेजय के पूछने पर व्यास जी ने देवी शताक्षी के प्रकट होने की कथा सुनायी थी। शाकम्भरी  माता के स्मरण मात्र से ही  दुखों से छुटकारा मिलकर  सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है ।देवी भागवत के अनुसार भुवनेश्वरी महाविद्या ही भगवती शाकम्भरी के रूप में प्रादुर्भूत हुईं थीं । कथा इस प्रकार है कि प्राचीन समय में हिरण्याक्ष वंशीय दुर्गम नामक दैत्य ने वेदों को नष्ट करने के उद्देश्य से हिमालय पर तप किया सोचा कि वेद न रहेंगे तो देवता भी न रहेंगे। जब एक हजार वर्ष बाद ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा तो दुर्गमासुर बोला- " सुरेश्वर! सब वेद मेरे पास आ जायें। मुझे वह बल दीजिये जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ। " ब्रह्माजी " ऐसा ही हो । " कहकर सत्यलोक चले गये। तब से ब्राह्मणों को वेद विस्मृत हो गये। इससे स्नान, संध्या, नित्य-होम-यज्ञ, श्राद्ध, जप आदि वैदिक क्रियायें नष्ट हो गईं। सारे भूमण्डल ...


पवित्र माघ मास का माहात्म्य

भा रतीय संवत्सर का ग्यारहवाँ चान्द्रमास और दसवाँ सौरमास 'माघ' कहलाता है।  इस महीने में मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। हिन्दू  धर्म के दृष्टिकोण से इस माघ मास का बहुत अधिक महत्व है। मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं- माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥       माघ में प्रयाग  में स्नान, दान, भगवान् विष्णु के पूजन और हरिकीर्तन के महत्त्व का वर्णन तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में भी किया है- माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥ पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥


मकर-संक्रान्ति का महापर्व [श्री सूर्य स्तोत्राणि]

सू र्य ही पञ्चदेवों में एकमात्र ऐसे देव हैं जिनके दर्शन सर्वसुलभ और नित्य ही हुआ करते हैं । हनुमान जी इनके शिष्य तथा यमराज-शनिदेव इन्हीं के पुत्र हैं ।  जगत्  की समस्त घटनाएँ तो सूर्यदेव की ही लीला-विलास हैं। भगवान् सूर्य अपनी कर्म-सृष्टि-रचनाकाल की लीला से श्रीब्रह्मा-रूप में प्रात:काल में जगत् को प्रकाशित कर संजीवनी प्रदान कर प्रफुल्लित करते हैं। मध्याह्नकाल में ये आदित्य भगवान अपनी ही प्रचण्ड रश्मियों के द्वारा श्रीविष्णुरूप से सम्पूर्ण दैनिक कर्म-सृष्टि का आवश्यकतानुसार यथासमय पालन-पोषण करते हैं, ठीक इसी प्रकार भगवान् आदित्य सायाह्नकाल में अपनी रश्मियों के द्वारा श्रीमहेश्वररूप से सृष्टि के दैनिक विकारों को शोषित कर कर्म-जगत् को हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ और निरोग बनाते हैं ।


अनूठे सिद्धयोगी श्री तैलंगस्वामी जी के संस्मरण

ब हुत वर्ष पूर्व आंध्रप्रदेश के विशाखापत्तनम जिले के होलिया गाँव में एक उदार व प्रजावत्सल जमींदार हुए जिनका नाम था- श्रीनृसिंहधर । ये कट्टर ब्राह्मण थे - तीनों समय संध्या किया करते थे। इनकी पत्नी श्रीमती विद्यावती इनसे बढ़कर धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। गृह-देवता शंकर की पूजा में अधिक समय व्यतीत करती थीं और अधिक व्रत-उपवास किया करती थीं। अपनी मनोकामना व्रत-उपवास-पूजा से पूरी न होती समझकर एक दिन उन्होंने आपने पति से कहा- “ शायद मेरे भाग्य में संतान सुख नहीं , मेरा अनुरोध है कि आप ‘ धर-वंश ’ की रक्षा के लिये एक विवाह और कर लें। ”


त्रिपुरभैरवी महाविद्या जगत् के मूल कारण की अधिष्ठात्री देवी हैं

क्षी यमान विश्व के अधिष्ठान श्री  दक्षिणामूर्ति कालभैरव हैं। त्रिपुरा माँ या भगवती त्रिपुरभैरवी उनकी ही शक्ति हैं। ये ललिता या महात्रिपुरसुन्दरी की रथवाहिनी हैं। ब्रह्माण्डपुराण में इन्हें गुप्त योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में चित्रित किया गया है। मत्स्यपुराण में इनके  त्रिपुरभैरवी, कोलेशभैरवी, रुद्रभैरवी, चैतन्यभैरवी तथा नित्याभैरवी आदि स्वरूपों का वर्णन प्राप्त होता है। इन्द्रियों पर विजय और सर्वत्र उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु  त्रिपुरभैरवी महाविद्या की उपासना का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। महाविद्याओं  में इनका छठा स्थान है। मुख्यतः घोर कर्मों में  त्रिपुरभैरवीजी के मंत्रो का प्रयोग किया जाता है।


श्रीदत्तात्रेय-जयन्ती - भगवान दत्तात्रेय जी की महिमा

म हायोगीश्वर दत्तात्रेय जी भगवान विष्णुजी के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को को प्रदोषकाल में हुआ था। अतः इस दिन बड़े समारोह से दत्तजयन्ती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत (२।७।४) में आया है कि पुत्रप्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रि के तप करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः ' “ मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया ” - श्रीविष्णुजी के ऐसा कहे जाने से भगवान् विष्णु ही अत्रि के पुत्ररूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाये। अत्रिपुत्र होने से ये ‘ आत्रेय ’ कहलाते हैं। दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका ' दत्तात्रेय ' नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनुसूया है, जो सतीशिरोमणि हैं तथा उनका पातिव्रत्य संसार में प्रसिद्ध है। 


गीता-जयन्ती पर जानें श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा

ज यन्ती तिथियों का हमारे हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्व रहा है। विश्व के किसी भी ग्रन्थ का जन्म - दिन नहीं मनाया जाता , जयन्ती मनायी जाती है तो केवल श्रीमद्भगवद्गीता की ; क्योंकि अन्य ग्रन्थ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किये गए हैं जबकि हमारे हिन्दू धर्म के इस पवित्रतम ग्रन्थ गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है - या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥


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