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छिन्नमस्ता महाविद्या हैं वज्र वैरोचनीया व शिवभाव-प्रदा

भ गवती आद्याशक्ति से उत्पन्न दस महाविद्याओं में अनेक गूढ़ रहस्य छिपे हुए हैं। इन्हीं में से एक हैं भगवती छिन्नमस्ता, जिनकी जयंती वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को बतलाई गई है। माँ छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यन्त ही गोपनीय है। जिसको कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। परिवर्तनशील जगत् का अधिपति कबन्ध को बतलाया गया है और उसकी शक्ति ही भगवती छिन्नमस्ता कहलाती हैं। विश्व में वृद्धि-ह्रास तो सदैव होता ही रहता है। जब ह्रास  की मात्रा कम और विकास की मात्रा अधिक होती है तब भुवनेश्वरी माँ का प्राकट्य होता है। इसके विपरीत जब निर्गम अधिक और आगम कम होता है तब छिन्नमस्ता माँ का प्राधान्य होता है।


श्रीनृसिंहचतुर्दशीव्रत दिलाता है सनातन मोक्ष

ज ब स्वयंप्रकाश परमात्मा अपने भक्तों को सुख देने के लिये अवतार ग्रहण करते हैं, तब वह तिथि और मास भी पुण्य के कारण बन जाते हैं। जिनके नाम का उच्चारण करने वाला पुरुष सनातन मोक्ष को प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणों के भी कारण हैं । सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं। वे ही भगवान् भक्त प्रह्लाद का अभीष्ट सिद्ध करने के लिये श्रीनृसिंहावतार के रूप में प्रकट हुए थे और जिस तिथि को भगवान् नरसिंहजी का प्राकट्य हुआ था, वह तिथि वैशाख शुक्ला चतुर्दशी एक महोत्सव बन गयी।


वगलामुखी महाविद्या हैं ब्रह्मास्त्र-स्वरूपिणी और भोग-मोक्ष-दायिनी

भ गवती वगलामुखी को  वल्गा,  पीताम्बरा या बगला भी कहा जाता है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली तथा समष्टि रूप में परमात्मा की संहार शक्ति ही भगवती वगला हैं। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को इनकी जयंती बतलाई गई है। पीताम्बरा विद्या के नाम से विख्यात माँ वगलामुखी की साधना-आराधना प्रायः शत्रुभय से मुक्ति और वाक्-सिद्धि के लिये की जाती है। इनकी उपासना में हरिद्रामाला, पीत-पुष्प एवं पीतवस्त्र प्रयुक्त करने का विधान है। महाविद्याओं में इनका आठवाँ स्थान है। इनके ध्यान में बताया गया है कि ये सुधासमुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नमय सिंहासन पर विराज रही हैं। ये पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले षुष्पों की ही माला धारण करती हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्गर है।


मातंगी महाविद्या देती हैं अभीष्ट फल

भ गवान शिवजी का नाम मतङ्ग है, इनकी शक्ति भगवती मातंगी हैं। अक्षय तृतीया अर्थात् वैशाख शुक्ल तृतीया को भगवती मातंगी की प्रादुर्भाव या जयन्ती तिथि बतलायी गयी है। मातङ्गी देवी के ध्यान में बताया गया है कि ये श्यामवर्णा हैं और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण किये हुए हैं। भगवती मातङ्गी त्रिनेत्रा, रत्नमय सिंहासन पर आसीन, नीलकमल के समान कान्ति वाली तथा राक्षस-समूहरूप अरण्य को भस्म करने में दावानल के समान हैं। इन्होंने अपनी चार भुजाओं में पाश, अङ्कुश, खेटक और खड्ग धारण किया है। ये असुरों को मोहित करने वाली एवं भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली हैं। गृहस्थ-जीवन को सुखी बनाने, पुरुषार्थ-सिद्धि और वाग्विलास में पारंगत होने के लिये माता मातङ्गी की आराधना-साधना करना श्रेयस्कर है। महाविद्याओं में ये नवें स्थान पर परिगणित हैं।


अक्षय फलदायिनी-चिरंजीवी तिथि-अक्षयतृतीया

भा रतवर्ष संस्कृति प्रधान देश है। हिन्दू  संस्कृति में व्रत-त्यौहारों का विशेष महत्त्व है। व्रत और त्योहार नयी प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संवहन करते हैं। इससे मानवीय मूल्यों की वृद्धि बनी रहती है और संस्कृति का निरन्तर परिपोषण तथा संरक्षण होता रहता है। भारतीय मनीषियों ने व्रत-पर्वों का आयोजन कर व्यक्ति और समाज को पथभ्रष्ट होने से बचाया है । भारतीय कालगणना के अनुसार, चार स्वयंसिद्ध अभिजित् मुहूर्त हैं- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ीपड़वा), आखातीज (अक्षय तृतीया) , दशहरा और दीपावली के पूर्व की प्रदोष-तिथि। भारतीय लोक-मानस सदैव से ऋतु-पर्व मनाता रहा है । हर ऋतुके परिवर्तन को मंगलभाव के साथ मनाने के लिये व्रत, पर्व और त्योहारों की एक श्रृंखला लोक जीवन को निरन्तर आबद्ध किये हुए है। इसी श्रृंखला में अक्षयतृतीया का पर्व वसन्त और ग्रीष्म के सन्धिकाल का महोत्सव है।


योग्य अधिकारी को दर्शन देते हैं भगवान परशुराम

भ गवान् परशुराम स्वयं भगवान् विष्णु के अंशावतार हैं। इनकी गणना दशावतारों में होती है। जब वैशाखमास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र मेँ रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छ: ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु स्थित था, तब उस योग में माता रेणुका के गर्भ से भगवान् परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ - वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ। निशाया: प्रथमे यामे रामाख्य: समये हरि:॥ स्वोच्चगै: षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते। रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभु: स्वयम्॥


तारा महाविद्या करती हैं भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा

भ गवती आद्याशक्ति के दशमहाविद्यात्मक दस स्वरूपों में एक स्वरूप भगवती तारा का है।   क्रोधरात्रि में भगवती तारा का प्रादुर्भाव हुआ था । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को महाविद्या तारा की जयन्ती तिथि बतलाई गई है। महाविद्या काली को ही नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देने वाली, तारने वाली हैं इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है-  तारकत्वात् सदा तारा सुख-मोक्ष-प्रदायि नी।  महाविद्याओं के क्रम में ये द्वितीय स्थान पर परिगणित की जाती हैं।  रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति  भगवती  तारा दसों  महाविद्याओं में  अद्भुत प्रभाववाली और  सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी  कही गयी हैं। भगवती तारा के तीन रूप हैं-  तारा, एकजटा और नीलसरस्वती।  श्री तारा महाविद्या के  इन   तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं किन्तु भिन्न होते  हुए भी सबकी शक्ति समान और एक ही है।   1. नीलसरस्वती अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिये...


श्री रामनवमी विशेष-पापनाशक श्री सीता-राम जी की आराधना दिलाती है मुक्ति

भ गवान श्रीराम की जयंती तिथि श्रीरामनवमी सारे जगत के लिये सौभाग्य का दिन है; क्योंकि अखिल विश्वपति सच्चिदानन्दघन श्रीभगवान् इसी दिन दुर्दान्त रावण के अत्याचार से पीड़ित पृथ्वी को सुखी करने और सनातन धर्म की मर्यादा को स्थापित करने के लिये श्रीरामचन्द्रजी के रूपमें प्रकट हुए थे। श्री राम सबके हैं, सबमें हैं, सबके साथ सदा संयुक्त हैं और सर्वमय हैं। जो कोई भी जीव उनकी आदर्श मर्यादा-लीला-उनके पुण्यचरित्र का श्रद्धापूर्वक गान, श्रवण और अनुकरण करता है, वह पवित्रहृदय होकर परम सुख को प्राप्त कर सकता है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को ' श्रीरामनवमी ' का व्रत होता है।


हिंदू नवसंवत्सर मंगलमय हो (2082 - सिद्धार्थ)

हि न्दू धर्मग्रन्थों में साठ प्रकार के संवत्सरों का वर्णन मिलता है। चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से नये संवत्सर का आरम्भ होता है, यह अत्यन्त पवित्र तिथि है । इसी तिथि से पितामह ब्रह्माजी ने सृष्टिनिर्माण प्रारम्भ किया था- 'चैत्रे मासि जगत् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेsहनि। शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति।।' नूतन संवत्सर की इस प्रथम तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान् के आदि अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है- कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा । रेवत्यां योगविष्कुम्भे दिवा द्वादशनाडिका: ।। मत्स्यरूपकुमार्या च अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।  (स्मृतिकौस्तुभ)


आनन्दोल्लास के पर्व होलिकोत्सव का महत्व

व सन्त पञ्चमी के आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन आने लगता है। दिन छोटे हो जाते हैं। जाड़ा कम होने लगता है। उधर पतझड़ शुरू हो जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का डंडा रोप दिया जाता है [होलाष्टक प्रारम्भ होने पर भी शाखा रोपी जाती है]। होली के पर्व के स्वागत हेतु आम्रमञ्जरियों पर भ्रमरावलियां मँडराने लगती हैं। वृक्षों में कहीं-कहीं नवीन पत्तों के दर्शन होने लगते हैं। प्रकृति में एक नयी मादकता का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार होली पर्व के आते ही एक नवीन रौनक, नवीन उत्साह एवं उमंग की लहर दिखाई देने लगती  है। होली जहाँ एक ओर एक सामाजिक एवं धार्मिक त्यौहार है, वहीं यह रंगों का त्यौहार भी है। बालक,वृद्ध, नर-नारी-सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते  हैं। इस देशव्यापी त्योहार में वर्ण अथवा जाति भेद का कोई स्थान नहीं।


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