सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

तारा महाविद्या करती हैं भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा

भ गवती आद्याशक्ति के दशमहाविद्यात्मक दस स्वरूपों में एक स्वरूप भगवती तारा का है।   क्रोधरात्रि में भगवती तारा का प्रादुर्भाव हुआ था । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को महाविद्या तारा की जयन्ती तिथि बतलाई गई है। महाविद्या काली को ही नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देने वाली, तारने वाली हैं इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है-  तारकत्वात् सदा तारा सुख-मोक्ष-प्रदायि नी।  महाविद्याओं के क्रम में ये द्वितीय स्थान पर परिगणित की जाती हैं।  रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति  भगवती  तारा दसों  महाविद्याओं में  अद्भुत प्रभाववाली और  सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी  कही गयी हैं। भगवती तारा के तीन रूप हैं-  तारा, एकजटा और नीलसरस्वती।  श्री तारा महाविद्या के  इन   तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं किन्तु भिन्न होते  हुए भी सबकी शक्ति समान और एक ही है।   1. नीलसरस्वती अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिये...


श्री रामनवमी विशेष-पापनाशक श्री सीता-राम जी की आराधना दिलाती है मुक्ति

भ गवान श्रीराम की जयंती तिथि श्रीरामनवमी सारे जगत के लिये सौभाग्य का दिन है; क्योंकि अखिल विश्वपति सच्चिदानन्दघन श्रीभगवान् इसी दिन दुर्दान्त रावण के अत्याचार से पीड़ित पृथ्वी को सुखी करने और सनातन धर्म की मर्यादा को स्थापित करने के लिये श्रीरामचन्द्रजी के रूपमें प्रकट हुए थे। श्री राम सबके हैं, सबमें हैं, सबके साथ सदा संयुक्त हैं और सर्वमय हैं। जो कोई भी जीव उनकी आदर्श मर्यादा-लीला-उनके पुण्यचरित्र का श्रद्धापूर्वक गान, श्रवण और अनुकरण करता है, वह पवित्रहृदय होकर परम सुख को प्राप्त कर सकता है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को ' श्रीरामनवमी ' का व्रत होता है।


हिंदू नवसंवत्सर मंगलमय हो (2082 - सिद्धार्थ)

हि न्दू धर्मग्रन्थों में साठ प्रकार के संवत्सरों का वर्णन मिलता है। चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से नये संवत्सर का आरम्भ होता है, यह अत्यन्त पवित्र तिथि है । इसी तिथि से पितामह ब्रह्माजी ने सृष्टिनिर्माण प्रारम्भ किया था- 'चैत्रे मासि जगत् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेsहनि। शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति।।' नूतन संवत्सर की इस प्रथम तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान् के आदि अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है- कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा । रेवत्यां योगविष्कुम्भे दिवा द्वादशनाडिका: ।। मत्स्यरूपकुमार्या च अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।  (स्मृतिकौस्तुभ)


आनन्दोल्लास के पर्व होलिकोत्सव का महत्व

व सन्त पञ्चमी के आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन आने लगता है। दिन छोटे हो जाते हैं। जाड़ा कम होने लगता है। उधर पतझड़ शुरू हो जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का डंडा रोप दिया जाता है [होलाष्टक प्रारम्भ होने पर भी शाखा रोपी जाती है]। होली के पर्व के स्वागत हेतु आम्रमञ्जरियों पर भ्रमरावलियां मँडराने लगती हैं। वृक्षों में कहीं-कहीं नवीन पत्तों के दर्शन होने लगते हैं। प्रकृति में एक नयी मादकता का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार होली पर्व के आते ही एक नवीन रौनक, नवीन उत्साह एवं उमंग की लहर दिखाई देने लगती  है। होली जहाँ एक ओर एक सामाजिक एवं धार्मिक त्यौहार है, वहीं यह रंगों का त्यौहार भी है। बालक,वृद्ध, नर-नारी-सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते  हैं। इस देशव्यापी त्योहार में वर्ण अथवा जाति भेद का कोई स्थान नहीं।


महाशिवरात्रि व्रत की महिमा व पूजा विधि

ह मारे हिन्दू धर्म में व्रतों का बड़ा ही महत्व बतलाया गया है। इनमें से भी सभी के द्वारा करने योग्य ' पञ्चमहाव्रत ' बतलाये गए हैं। इन पाँच व्रतों में से एक व्रत है- महाशिवरात्रि । महाशिवरात्रि का अर्थ उस रात्रि से है जिसका शिवतत्त्व के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। भगवान् शिवजी की अतिप्रिय रात्रि को ' शिवरात्रि ' कहा गया है। रुद्राभिषेक-शिवार्चन और रात्रि-जागरण ही इस व्रत की प्रमुख विशेषता है।  यूं तो प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है परन्तु फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी महाशिवरात्रि कहलाती है।


भीष्माष्टमी पर करें भीष्म-तर्पण

मा घ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी 'भीष्माष्टमी' के नाम से प्रसिद्ध है। महाभारत में वर्णन है कि भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान था।  माघ शुक्लाष्टमी तिथि को बाल ब्रह्मचारी भीष्मपितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राण छोड़े थे। उनकी पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है । इस दिन प्रत्येक हिन्दू को भीष्मपितामह के निमित्त कुश, तिल, जल लेकर तर्पण करना चाहिए, चाहे उसके माता-पिता जीवित ही क्यों न हों। इस व्रत के करने से मनुष्य सुन्दर और गुणवान् संतति प्राप्त करता है- माघे मासि सिताष्टम्यां सतिलं भीष्मतर्पणम् । श्राद्धं च ये नराः कुर्युस्ते स्युः सन्ततिभागिनः ॥


सारस्वतोत्सव पर जानिये सरस्वती जी की महिमा

भ गवती शारदा विद्या, बुद्धि, ज्ञान एवं वाणी की अधिष्ठात्री तथा सर्वदा शास्त्र-ज्ञान देने वाली देवी हैं। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में इन्हीं माँ वागीश्वरी की जयंती वसन्त पञ्चमी के दिन बतलाई गई है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को मनाया जाने वाला यह सारस्वतोत्सव या सरस्वती-पूजन अनुपम महत्त्व रखता है। सरस्वती माँ का मूलस्थान शशाङ्क-सदन अर्थात् अमृतमय प्रकाश-पुञ्ज है। जहां से वे अपने उपासकों के लिये निरंतर पचास अक्षरों के रूप में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित करती हैं। शुद्ध ज्ञानमय व आनन्दमय विग्रह वाली माँ वागीश्वरी का तेज दिव्य व अपरिमेय है और इनकी ही शब्दब्रह्म के रूप में स्तुति की जाती हैं। सृष्टिकाल में ईश्वर की इच्छा से आद्याशक्ति ने स्वयं को पाँच भागों में विभक्त किया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा एवं सरस्वती के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों से उत्पन्न हुईं थीं। उस समय श्रीकृष्ण के  कण्ठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ। ये नीलसरस्वती-रूपिणी देवी ही तारा महाविद्या हैं।


शाकंभरी भगवती हैं करुणहृदया व कृपाकारिणी (श्री शाकम्भरी साधना)

भ गवती शाकंभरी को शताक्षी देवी के नाम से भी जाना जाता है। पौष मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को इन्हीं शाकम्भरी माँ की जयन्ती मनाई जाती है । देवी भागवत में वर्णन है कि राजा जनमेजय के पूछने पर व्यास जी ने देवी शताक्षी के प्रकट होने की कथा सुनायी थी। शाकम्भरी  माता के स्मरण मात्र से ही  दुखों से छुटकारा मिलकर  सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है ।देवी भागवत के अनुसार भुवनेश्वरी महाविद्या ही भगवती शाकम्भरी के रूप में प्रादुर्भूत हुईं थीं । कथा इस प्रकार है कि प्राचीन समय में हिरण्याक्ष वंशीय दुर्गम नामक दैत्य ने वेदों को नष्ट करने के उद्देश्य से हिमालय पर तप किया सोचा कि वेद न रहेंगे तो देवता भी न रहेंगे। जब एक हजार वर्ष बाद ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा तो दुर्गमासुर बोला- " सुरेश्वर! सब वेद मेरे पास आ जायें। मुझे वह बल दीजिये जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ। " ब्रह्माजी " ऐसा ही हो । " कहकर सत्यलोक चले गये। तब से ब्राह्मणों को वेद विस्मृत हो गये। इससे स्नान, संध्या, नित्य-होम-यज्ञ, श्राद्ध, जप आदि वैदिक क्रियायें नष्ट हो गईं। सारे भूमण्डल ...


पवित्र माघ मास का माहात्म्य

भा रतीय संवत्सर का ग्यारहवाँ चान्द्रमास और दसवाँ सौरमास 'माघ' कहलाता है।  इस महीने में मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। हिन्दू  धर्म के दृष्टिकोण से इस माघ मास का बहुत अधिक महत्व है। मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं- माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥       माघ में प्रयाग  में स्नान, दान, भगवान् विष्णु के पूजन और हरिकीर्तन के महत्त्व का वर्णन तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में भी किया है- माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥ पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥


मकर-संक्रान्ति का महापर्व [श्री सूर्य स्तोत्राणि]

सू र्य ही पञ्चदेवों में एकमात्र ऐसे देव हैं जिनके दर्शन सर्वसुलभ और नित्य ही हुआ करते हैं । हनुमान जी इनके शिष्य तथा यमराज-शनिदेव इन्हीं के पुत्र हैं ।  जगत्  की समस्त घटनाएँ तो सूर्यदेव की ही लीला-विलास हैं। भगवान् सूर्य अपनी कर्म-सृष्टि-रचनाकाल की लीला से श्रीब्रह्मा-रूप में प्रात:काल में जगत् को प्रकाशित कर संजीवनी प्रदान कर प्रफुल्लित करते हैं। मध्याह्नकाल में ये आदित्य भगवान अपनी ही प्रचण्ड रश्मियों के द्वारा श्रीविष्णुरूप से सम्पूर्ण दैनिक कर्म-सृष्टि का आवश्यकतानुसार यथासमय पालन-पोषण करते हैं, ठीक इसी प्रकार भगवान् आदित्य सायाह्नकाल में अपनी रश्मियों के द्वारा श्रीमहेश्वररूप से सृष्टि के दैनिक विकारों को शोषित कर कर्म-जगत् को हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ और निरोग बनाते हैं ।


हाल ही की प्रतिक्रियाएं-