सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

महाकाली महिमा तथा काली एकाक्षरी मन्त्र पुरश्चरण

का ल अर्थात् समय/मृत्यु की अधिष्ठात्री भगवती महाकाली हैं। यूं तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि योगमाया भगवती आद्याकाली के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाई जाती है। परंतु तान्त्रिक मतानुसार आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन ' काली जयंती ' बतलायी गयी है। जगत के कल्याण के लिये वे सर्वदेवमयी आद्या शक्ति अनेकों बार प्रादुर्भूत होती हैं, सर्वशक्ति संपन्न वे भगवान तो अनादि हैं परंतु फिर भी भगवान के अंश विशेष के प्राकट्य दिवस पर उन स्वरूपों का स्मरण-पूजन कर यथासंभव उत्सव करना मंगलकारी होता है। दस महाविद्याओं में प्रथम एवं मुख्य महाविद्या हैं भगवती महाकाली। इन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान शिव की शक्तियां ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टि से  भी कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकाल की प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के नाम से विख्य...


महालय पर जानिये श्राद्ध एवं पितृपक्ष के महत्व को

जी वन का अन्तिम पड़ाव है मृत्यु। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार मनुष्य मृत्यु के पश्चात पितर(मृत पूर्वज) होकर पितृलोक जाते हैं। पितृलोक के पश्चात कर्मानुसार या तो वह व्यक्ति स्वर्ग/नरक/मुक्ति पाता है या उसका पुनर्जन्म होता है। श्राद्ध से तात्पर्य है पितृगणों की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म। पितरों का ऋण श्राद्धों द्वारा चुकाया जाता है। दिवंगत हुए व्यक्ति का सपिण्डीकरण व वार्षिक श्राद्ध किया जाता है। इसके पश्चात भी प्रतिवर्ष उस जीवात्मा की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है। विशेष बात यह है कि अगला जन्म लेकर वह  मनुष्य अपने कर्मानुसार देवता, गंधर्व, मनुष्य या पक्षी आदि जिस भी योनि का हो जाता है, उसी के अनुरूप उसे श्राद्धकर्म तृप्ति देता है।   इसलिए मृत पूर्वज का  श्राद्ध अवश्य करे इस परम्परा को कभी न तोड़े। भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन की अमावास्या तक पितृपक्ष कहलाता है।  दो अवसरों पर मुख्यतः हर वर्ष श्राद्ध किया जाता है; एक बार - जिस मास की जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई हो तब । दूसरी बार पितृपक्ष पर-जिनकी मृत्यु जिस तिथि को हुई हो इस ...


वामन जयंती पर जानिये भगवान वामन के अवतार की कथा

आ ज यानि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की  द्वादशी तिथि को ही भगवान श्री हरि ने वामन अवतार धारण किया था। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से महाबाहु बलि का जन्म हुआ। दैत्यराज बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, बलवान, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरि के प्रिय भक्त थे।  यही कारण था कि उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणों को जीतकर तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार राजा बलि समस्त त्रिलोकी पर राज्य करते थे। इंद्रादिक देवता दासभाव से उनकी सेवा में खड़े रहते थे। परम भक्त तो थे राजा बलि किन्तु बलि को अपने बल का अभिमान था। इन्द्र आदि देवों का अधिपत्य हड़प चुके थे वो। कितना ही बड़ा भक्त हो कोई अभिमान आ जाय तो सारी भक्ति व्यर्थ है। तब महर्षि कश्यप ने अपने पुत्र इन्द्र को राज्य से वंचित देखकर तप किया और भगवान विष्णु से बलि को मायापूर्वक परास्त करके इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान करने का वरदान माँगा।


भुवनेश्वरी महाविद्या हैं सर्वस्वरूपा मूल प्रकृति (भुवनेश्वरी खड्गमाला स्तोत्र)

माँ भुवनेश्वरी की आराधना हेतु सर्वोत्तम दिवस है भुवनेश्वरी महाविद्या की जयंती तिथि । दस महाविद्याओं में से पंचम महाविद्या भगवती भुवनेश्वरी का भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को प्रादुर्भाव हुआ माना जाता है। भुवनेश्वरी महाविद्या का स्वरूप सौम्य है और इनकी अंगकान्ति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। वास्तव में मूल प्रकृति का ही दूसरा नाम भुवनेश्वरी है। दशमहाविद्याएँ ही दस सोपान हैं । काली तत्व से निर्गत होकर कमला तत्व तक की दस स्थितियाँ हैं , जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड का रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलय में कमला से अर्थात् व्यक्त जगत से क्रमशः लय होकर कालीरूप में मूलप्रकृति बन जाती हैं । इसीलिये भगवती भुवनेश्वरी को काल की जन्मदात्री भी कहा जाता है ।


श्रीराधा हैं युगल सरकार स्वरूपिणी भगवती - राधाष्टमी विशेष

भ गवती महालक्ष्मी स्वरू पा भगवती श्रीराधा, श्रीकृष्ण की ही भाँति नित्य-सच्चिदानन्दघन रूपा हैं। समय-समय पर लीला के लिये प्रकट होने वाले भगवान श्रीकृष्ण की ही भाँति ये भी आविर्भूत हुआ करती हैं। एक बार ये दिव्य गोलोकधाम में श्रीकृष्ण के वामांश से प्रकट हुई थीं। इन्होंने ही फिर व्रजभूमि के अन्तर्गत बरसाने [वृषभानुपुर]में भाद्रपद शुक्ला अष्टमी को श्री वृषभानु महाराज के घर परमपुण्यमयी श्रीकीर्तिदारानी जी की कोख से प्रकट होने की लीला की थी। आज उसी का महोत्सव राधाष्टमी के रूप में मनाया जाता है।


वाराह अवतार हैं जगत के उद्धारक

भा द्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया  तिथि को भगवान के वाराहावतार की जयंती या प्रादुर्भाव तिथि कही गयी है। वही ये वैष्णवावतार वाराह हैं जिन्होंने हिरण्याक्ष नामक असुर का वध कर समूची पृथ्वी का उद्धार किया था। भगवान का वाराह अवतार वेदप्रधान यज्ञस्वरूप अवतार है। दिन तथा रात्रि इनके नेत्र हैं, हविष्य इनकी नासिका है। सामवेद का गंभीर स्वर इनका उद्घोष है। यूप इनकी दाढ़ें हैं, चारों वेद इनके चरण हैं, यज्ञ इनके दाँत हैं। श्रुतियाँ इनका आभूषण हैं, चितियाँ मुख हैं।  साक्षात अग्नि ही इनकी जिह्वा तथा कुश इनकी रोमावली है एवं ब्रह्म इनका मस्तक है।


दशाफल व्रत एवं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत का महत्व [मधुराष्टकम्]

म हापुण्यप्रद पंच महाव्रतों में से एक है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत । अर्धरात्रिकालीन अष्टमी में रोहिणी नक्षत्र व बुधवार से बना श्री कृष्ण जयंती का योग   महापुण्यप्रद  हो जाता है; साथ ही हर्षण योग, वृषभ लग्न और उच्च राशि का चंद्रमा, सिंह राशि का सूर्य हो तो ऐसे दुर्लभ योग में ही प्रभु श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ था । इस दिन अर्धरात्रि में आद्याकाली जयंती भी होती है। अष्टमी को यदि बुधवार आ जाय तो बुधाष्टमी का शुभप्रद व्रत भी सम्पन्न हो जाता है, जो कि सूर्यग्रहण के तुल्य होता है।  मोहरात्रि व गोकुलाष्टमी इस दिन के ही दूसरे नाम हैं। इस दिन दशाफलव्रत  किया जाता है तथा मार्गशीर्ष से शुरू किया गया कालाष्टमी व्रत  हर महीने के कृष्ण पक्ष की तरह इस दिन भी किया जाता है। कौन नहीं जानता भगवान श्रीकृष्ण को? भागवत में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत लीलाओं को एक बार भी सुनकर-पढ़कर भला उन राधामाधव को कौन भूल सकता है? वही ये लीलाविहारी श्रीकृष्ण हैं जिन्होंने बचपन में ही खेल-खेल में नृत्य करते हुए सात फन वाले भयानक  कालिय नाग का मर्दन  कर ड...


गायत्री वेदमाता की महिमा (कवच, 108 नाम स्तोत्र)

श्रा वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन  रक्षाबंधन, संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती    के साथ-साथ "भगवती गायत्री जयंती" मनाई जाती है। वेदमाता कहलाने वाली ये भगवती माँ अपने गायक/जपकर्ता का पतन से त्राण कर देती हैं; इसीलिए वो 'गायत्री' कहलाती हैं। जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही धर्म-कर्म के लिये योग्य कहलाता है और दान, जप, होम व पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है। पंचमुखी देवी गायत्री श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन श्रावणी उपाकर्म किया जाता है जिसके अंतर्गत  प्रायश्चित संकल्प करके दशविध स्नान के बाद  फिर शुद्ध स्नान कर नवीन यज्ञोपवीत का मंत्रों से संस्कार करके उस यज्ञोपवीत का पूजन कर उसे धारण किया जाता है फिर   पुराने यज्ञोपवीत का त्याग कर दिया जाता है । फिर गायत्री पूजन करें।  तत्पश्चात् यथाशक्ति गायत्री मंत्र जपा जाता है।  इसके बाद सप्तर्षि पूजन करके हवन करके  ऋषि तर्पण, पितृ तर्पण करते हैं।  चूंकि इस दिन गायत्री जयंती है अतः सच्चे मन से वेदजननी माँ गायत्री से संबन्धित स्तोत्रों का पाठ करना, गायत्री मंत्र से हवन, मन ही मन गायत्री ...


तीन लघु कथाएँ - 'विश्वास', 'दरिद्र कौन?' और ''अतिथि के लिए उत्सर्ग"

प्रेरक कथा-१ ====== ॥  विश्वास    ॥ ====== ए क आदमी था जो एक नदी के किनारे एक छोटे से घर में रहता था वह बहुत ही धार्मिक प्रवृति का आदमी था, उसे भगवान पर बहुत विश्वास था! एक दिन उस नदी में बाढ़ आ गयी वह आदमी घर समेत बह गया काफी दूर बहने के बाद उसने बचने का प्रयास किया! वह सीधे घर की छत पर चढ़ गया तो देखा पानी काफी भर चुका है! तभी दूर से एक काफी बड़ी नाव में कुछ लोग आये और कहने लगे कि उनके साथ नाव में आ जाये पर वो आदमी कहने लगा कि नहीं मुझे बचाने तो भगवान आयेंगे! ऐसा सुनकर वो नाव वाले वहां से चले गए! पानी का स्तर बढ़ ही रहा था उस आदमी का घर पूरा डूबने वाला था तभी एक और नाव वाला वहां से आया और उसे कहा कि उसके साथ चल पड़े पर वो आदमी कहने लगा कोई बात नहीं तुम जाओ मुझे बचाने तो भगवान आयेंगे! तब वो नाव वाला भी वहां से चला गया! अब उस आदमी का पूरा घर डूबने वाला था तभी उसे सामने एक पेड़ नजर आया उसने पेड़ को पकड़ लिया थोड़ी देर बाद पानी का स्तर और बढ़ गया वह आदमी पेड़ पर बैठ कर भगवान को याद कर रहा था!


श्रावण पूर्णिमा - रक्षा बंधन, संस्कृत दिवस एवं लव कुश जयंती - एक पावन दिवस

श्रा वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन स्नेह के प्रतीकात्मक त्योहार रक्षाबंधन को मनाया जाता है। आप सभी को रक्षाबंधन की बहुत - बहुत शुभकामनायें। रक्षाबंधन के साथ-साथ आज  संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती और "भगवती गायत्री जयंती" भी है।   ॥गायत्री देव्यै नमः॥  यूं तो श्रावण पूर्णिमा पर ही भगवती गायत्री जी की जयंती कही गयी है, पर गंगा दशहरा के दिन भी इनकी जयंती बतलाई गई है। वेदमाता को  बारंबार नमन । रक्षाबंधन के विषय में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था कि प्राचीन काल में जब देवासुर-संग्राम में देवता दानवों से पराजित हो गए थे; तब वे दुःखी होकर दैत्यराज बलि के साथ गुरु शुक्राचार्य के पास गए और उनको सब कुछ कह सुनाया। इस पर शुक्राचार्य बोले," विषाद न करो दैत्यराज! इस समय देवराज इन्द्र के साथ वर्षभर के लिए तुम संधि कर लो, क्योंकि इन्द्र-पत्नी शची ने इन्द्र को रक्षा-सूत्र बांधकर अजेय बना दिया है। उसी के प्रभाव से दानवेंद्र! तुम इन्द्र से परास्त हुए हो। " गुरु शुक्राचार्य के वचन सुनकर सभी दानव निश्चिंत होकर वर्ष बीतने की प्रतीक्षा करने लगे। यह रक्षाबंधन का ही विलक्षण प्रभाव है,...


हाल ही की प्रतिक्रियाएं-