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श्री मातंगी महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

भ गवती मातंगी की दस महाविद्याओं में नवें स्थान पर परिगणना की जाती है।  अक्षय तृतीया अर्थात् वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मातंगी महाविद्या की प्रादुर्भाव तिथि कही गयी है ।   नवरात्रि के अवसर पर भी मातंगी भगवती की उपासना की जाती है।  श्यामला, राजश्यामला, राजमातंगी, मातंगिनी, इन्हीं के नाम हैं। ये ही श्री ललिताम्बिका की मन्त्रिणी नामक शक्ति हैं। श्रीविद्या की उपासना में इनका भी मंत्र ग्रहण किया जाता है। अतएव श्रीविद्या उपासक भी इनकी आराधना करके पूर्णता पाते हैं।  भगवती मातंगी आराधक के सारे विघ्न, उपद्रव, बाधाएं नष्ट कर देती हैं ।  भगवती मातंगी अपने भक्त को सुन्दर आकर्षक वाणी,  विद्या तथा प्रचुर धन प्रदान करती हैं, देवी की कृपा से दुर्योग भी सुयोग में बदल जाता है। देवी मातंगी का आराधक सहज ही मोक्ष भी पा जाता है। देवी मातंगी को सुगन्धित पुष्प और खीर अर्पित करें।  मेरु तंत्र के अनुसार महाविद्या मातङ्गी की प्रीति के लिये प्रत्येक मंगलवार को उनका पूजन करना चाहिये; तत्पश्चात्‌ एक, तीन, पाँच अथवा सात कुमारियों को स्वादिष्ट भक्ष्यभोज्य ए...


भुवनेश्वरी महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

भ गवान अमृतेश्वर शिव की शक्ति भगवती भुवनेश्वरी महाविद्या है।सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि रूपी नेत्रों से भगवती हमें निरंतर देख रही है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भुवनेश्वरी महाविद्या का प्राकट्य हुआ था। अतः यह तिथि श्री भुवनेश्वरी जयंती तिथि के नाम से सुप्रसिद्ध है। भुवनेश्वरी जयन्ती के दिन भक्तिपूर्वक माँ की आराधना की जानी चाहिए। भुवनेश्वरी भगवती पर जिनकी आस्था है उन्हें अन्य दिनों में भी भगवती भुवनेश्वरी की नियमित रूप से आराधना करनी चाहिए। अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तिथि को विशेषकर भुवनेश्वरी महाविद्या की  आराधना करे।  आज के समय में श्री भुवनेश्वरी मन्त्र साधना हेतु योग्य गुरु मिलना कठिन हो सकता है, इसलिए जब तक दीक्षित होना संभव नहीं हो तो स्तोत्रों का पाठ करना चाहिए, दीक्षित व्यक्ति तो स्तोत्रों का पाठ करते ही हैं। भुवनेश्वरी महाविद्या के स्तोत्र तो बहुत मिलते हैं जैसे खड्गमाला, कवच, हृदय आदि..........कुछ को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।


श्री त्रिपुरसुन्दरी षोडशी महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना [श्रीविद्या खड्गमाला]

प्र त्येक धर्मशील जिज्ञासु के मन में ये प्रश्न उठते ही हैं कि जीव का ब्रह्म से मिलन कैसे हो? जीव की ब्रह्म के साथ एक-रूपता कैसे हो? इस हेतु हमारे आगम ग्रंथों में अनेक विद्याएँ उपलब्ध हैं। शक्ति-उपासना में इसी सन्दर्भ में दश-महाविद्याएँ भी आती हैं। उनमें महाविद्या भगवती षोडशी अर्थात श्रीविद्या का तीसरा महत्त्व-पूर्ण स्थान है, श्रीविद्या को सामान्य रूप से,  श्री प्राप्त करने की विद्या कह सकते हैं और आध्यात्मिक रूप से इसे मोक्ष प्राप्त करने की अत्यन्त प्राचीन परम्परा कहा जा सकता है। शब्दकोशों के अनुसार श्री के कई अर्थ हैं- लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, कुबेर, त्रिवर्ग(धर्म-अर्थ व काम), सम्पत्ति, ऐश्वर्य, कान्ति, बुद्धि, सिद्धि, कीर्ति, श्रेष्ठता आदि। इससे भी श्रीविद्या की महत्ता ज्ञात हो जाती है। राजराजेश्वरी भगवती ललिता की आराधना को सम्पूर्ण भारत में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जगद्गुरु श्री शंकराचार्य के चारों मठों में ( 1 . गुजरात के द्वारका में, 2. उत्तराखंड के जोशीमठ में स्थित शारदा पीठ, 3. कर्नाटक के श्रृंगेरी पीठ व 4. उड़ीसा के पुरी में) इन्ह...


धूमावती महाविद्या जयन्ती पर करें धूमावती शतार्चन

द स  महाविद्याओं में सातवीं महाविद्या देवी धूमावती को ज्येष्ठा लक्ष्मी अर्थात् लक्ष्मी जी की बड़ी बहन भी कहा जाता है। धूमावती महाविद्या का स्वरूप कृशकाय, वृद्धा   तथा विधवारूप है, उनके बाल बिखरे हुये हैं, ये जिस रथ पर बैठी हैं उसके ऊपर झंडा लगा हुआ है जिस पर कौए की आकृति विराजमान है। शूर्प धूमावती महाविद्या का मुख्य अस्त्र है जब सृष्टि के समापन का समय आता है तब अपने शूर्प में समस्त विश्व को समेट कर ये देवी महा-प्रलय कर देती हैं। धूमावती माँ शूर्प के साथ साथ मूसल नामक अस्त्र से भक्त के शत्रु का संहार करती हैं और जब भयानक रूप धारण करती हैं तब टेढ़े-मेढ़े दांत वाली हैं।  माँ धूमावती के मंदिर दुर्लभ ही हैं, मध्य प्रदेश के दतिया पीताम्बरा पीठ पर धूमावती महाविद्या का विग्रह स्थापित है जहां अनेकों श्रद्धालु  धूमावती  मां के दर्शन कर अपनी समस्याओं से मुक्ति पाते हैं। माँ धूमावती साधक के काम क्रोध, लोभ, मोह, घमंड, ईर्ष्या रूपी छः शत्रुओं का नाश करती हैं। माँ धूमावती को क्षुत्पिपासार्दिता कहा गया है, वास्तव में जीव को शिव तत्व का ज्ञान दिलाकर शिव में ही एकाकार ...


श्री शनैश्चर अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र पूजन साधना

भ गवान की अतिशय कृपा है कि ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से  हमको भविष्य में आने वाली बाधाओं का तो पूर्वानुमान होता है ही बल्कि सम्बन्धित ग्रह के उपाय से हम उन बाधाओं से मुक्ति भी पा सकते हैं।   जातक की कुंडली या ग्रह गोचर में शनि ग्रह के प्रतिकूल होने पर जातक को निम्न परेशानी रहती हैं - ऋण, दुःख, पैरों की तकलीफ, मन्दाग्नि, वात-वमन, शरीर में कम्पन, अकस्मात चोट-दुर्घटना, दीर्घकालीन, बीमारियां, शरीर की दुर्बलता, अपयश, मुकदमेबाजी में उलझाव, किसी से अकारण शत्रुता हो जाना और बुरी आदतें जैसे चोरी, सट्टा, नशे की लत लग जाना आदि कुप्रभाव देखने को मिलते हैं। कहा जाता है कि शनि ग्रह अपने आप किसी को परेशान नहीं करता बल्कि "दंडाधिकारी" होने से जातक को पिछले जन्म में किये गये बुरे कर्मों का फल देता है हम पिछले जन्म के कर्म तो नहीं बदल सकते परन्तु प्रायश्चित स्वरूप पूजा-साधना करके शनिदेव को प्रसन्न करके हम इस जन्म में आ रही बाधाओं से छुटकारा पा सकते हैं। ज्येष्ठ मास की अमावस्या  को शनिदेव का प्रादुर्भाव हुआ था इसलिए इस दिन शनि जयंती मनाई जाती है। शनि देव की अनुकूलता के लिए...


एकादशी व्रत के उद्यापन की विस्तृत विधि

व्र त एक तप है तो उद्यापन उसकी पूर्णता है। उद्यापन वर्ष में एक बार किया जाता है इसके अंग हैं- व्रत , पूजन , जागरण , हवन , दान , ब्राह्मण भोजन , पारण । समय व जानकारी के अभाव में कम लोग ही पूर्ण विधि - विधान के साथ उद्यापन कर पाते हैं। प्रत्येक व्रत के उद्यापन की अलग - अलग शास्त्रसम्मत विधि होती है। इसी क्रम में शुक्ल और कृष्ण पक्ष की एकादशियों का उद्यापन करने की विस्तृत शास्त्रोक्त विधि आपके समक्ष प्रस्तुत है। वर्ष भर के 24 एकादशी व्रत किसी ने कर लिये हों तो वो उसके लिए उद्यापन करे। जिसने एकादशी व्रत अभी नहीं शुरु किये लेकिन आगे से शुरुआत करनी है तो वह भी पहले ही एकादशी उद्यापन कर सकते हैं और उस उद्यापन के बाद 24 एकादशी व्रत रख ले। कुछ लोग साल भर केवल कृष्ण पक्ष के 12 एकादशी व्रत लेकर उनका ही उद्यापन करते हैं तो कुछ लोग साल भर के 12 शुक्ल एकादशी व्रत लेकर उनका ही उद्यापन भी करते हैं। अतः जैसी इच्छा हो वैसे करे लेकिन उद्यापन अवश्य ही करे तभी व्रत को पूर्णता मिलती है। कृष्ण पक्ष वाले व्रतों का उद्यापन कृष्ण पक्ष की एकादशी-द्वादशी को करे , शुक्ल पक्ष वाले व्रतों का उ...


भुवनेश्वरी महाविद्या हैं मूल प्रकृति और आद्याशक्ति [त्रैलोक्य मंगल कवच]

भा द्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि भगवती भुवनेश्वरी की प्रादुर्भाव तिथि है। भुवनेश्वरी देवी को चतुर्थी महाविद्या कहा गया है किन्तु आद्याशक्ति भुवनेश्वरी ही हैं उन्हीं से सबका प्रादुर्भाव हुआ है, ऐसा कथन कुञ्जिका तन्त्र में है- भुवनानां पालकत्वाद् भुवनेशी प्रकीर्तिता ।  सृष्टि-स्थिति-करी देवी भुवनेशी प्रकीर्तिता।। अर्थात् त्रिभुवन की सृष्टि, स्थिति और पालन करती हैं, इस कारण भुवनेशी अर्थात् भुवन की ईश्वरी कही जाती हैं। तोड़ल तन्त्र में भी कहा है- श्रीमद्-भुवन-सुन्दर्या दक्षिणे त्र्यम्बकं यजेत्। स्वर्गे मर्त्ये च पाताले सा आद्या भुवनेश्वरी। यहाँ भी महाविद्या भुवनेश्वरी आद्या कहीं गई हैं। इसी तोड़ल तन्त्र में दस महाविद्याओं के निरूपण में श्री महादेव जी ने कहा है- 'भुवनेश्वरी देवी के भैरव त्र्यम्बक हैं। इनकी अर्चना भुवन-सुंदरी के दक्षिण भाग में करे।'


भगवान हयग्रीव की आराधना दिलाती है वांछित फल

भ गवान हयग्रीव अथवा हयशीर्ष भगवान विष्णु जी के ही अवतार हैं... इनका सिर घोड़े का है। पुराणों में भगवान के इस स्वरूप से संबन्धित कथाएँ मिलती हैं।  कल्प भेद हरि चरित सुहाए  - तुलसीदास जी के अनुसार हर कल्प में भगवान भिन्न-भिन्न प्रकार से सुहावनी लीला रचते हैं। सृष्टि के आदिकाल में क्षीरोदधि में अनन्त-शायी प्रभु नारायण की नाभि से पद्म प्रकट हुआ। पद्म-की कर्णिका से सिन्दूरारुण चतुर्मुख लोकस्रष्टा ब्रह्माजी व्यक्त हुए। क्षीरोदधि से दो बिन्दु निकलकर कमल पऱ पहुँच गये।


त्राणकर्त्री वेदमाता गायत्री की जयंती

श्रा वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन, संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती के साथ-साथ "भगवती गायत्री जयंती" मनाई जाती है। मतांतर से ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भी देवी गायत्री की जयन्ती तिथि बतलायी गई है।गौ, गंगा तथा गायत्री हिन्दुत्व की त्रिवेणी कहलाती है। ये तीनों ही अति पवित्र कहे गए हैं तथा भव बंधनों से मुक्ति दिलाते हैं। समस्त वेदों का सार तथा समस्त देवों की शक्तियाँ गायत्री मंत्र में निहित हैं। वेदमाता कहलाने वाली ये माँ भगवती अपने गायक/ जपकर्ता का पतन से त्राण कर देती हैं ; इसीलिए 'गायत्री' कहलाती हैं। जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही धर्म-कर्म के लिये योग्य कहलाता है और दान, जप, होम व पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है। नित्य संध्या करने वाला होने के कारण शास्त्रों में ब्राह्मणों को दान करने के लिये कहा जाता है। क्योंकि जो दान की वस्तु को पाता है उसे प्रतिग्रह का दोष लग जाता है लेकिन यदि वह व्यक्ति गायत्री जप करता है तो प्रतिग्रह के दोष से मुक्त हो जाता है। कोई भी शुभ कर्म हो विवाह, अनुष्ठान, पूजा आदि हो तो सबसे पहले संध्या ...


श्री गणेश चतुर्थी व्रत तथा स्यमन्तक मणि का अपकीर्तिनाशक आख्यान

भ गवान  श्रीगणेश   का   जन्म भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न   के समय   हुआ था। अत: यह   श्री गणेश चतुर्थी तिथि   मध्याह्नव्यापिनी लेनी चाहिये। इस दिन रविवार अथवा मंगलवार हो तो प्रशस्त है। गणेशजी हिन्दूधर्म   के   प्रथम पूज्य देवता  हैं। सनातन धर्मानुयायी स्मार्तों के देवताओं में विघ्नविनायक गणेशजी प्रमुख हैं। हिन्दुओं   के   घर   में   चाहे जैसी पूजा या   धार्मिक आयोजन   हो ,   सर्वप्रथम श्रीगणेशजी का   आवाहन और पूजन  किया जाता है। शुभ कार्यों मेँ गणेश   जी   की स्तुति का अत्यन्त महत्त्व माना गया है । गणेश जी  समस्त  विघ्नों   को दूर करने वाले देवता हैं। इनका मुख हाथी का ,   उदर लम्बा तथा शेष   शरीर मनुष्य के समान है। मोदक इन्हें विशेष प्रिय है।  बंगाल की   दुर्गापूजा   की तरह   ही   महाराष्ट्र में   गणेश जी की पूजा   एक   राष्ट्रीय   पर्व के   रूप में प्रतिष्ठित   है।


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