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महाशिवरात्रि का अद्भुत रहस्य [श्रीशिवपञ्चाक्षर स्तोत्रम्]

भ गवान  शिव के नाम का अर्थ ही 'कल्याण' है। दयालु धूर्जटी शिवजी की कृपा पाने को हर कोई लालायित रहता है। सभी शिवभक्तों को ज्ञात है कि महादेव शिवशङ्कर जी की उपासना हेतु सोमवार उत्तम दिवस है। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी अर्थात्  महाशिवरात्रि के दिन तो औघड़दानी शम्भू श्रीमहादेव का विशेष आराधन किया जाता है। महाशिवरात्रि का पर्व परत्मात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मङ्गलसूचक है। उनके निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि  कहलाती है। कृपानिधान शंकर भगवान हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि विकारों से मुक्त करके परम सुख शान्ति, ऐश्वर्यादि प्रदान करते हैं।


षोडशी महाविद्या हैं भुक्ति-मुक्ति-दायिनी [श्रीललितापञ्चरत्नम्]

मा हेश्वरी शक्ति स्वरुपिणी षोडशी महाविद्या सबसे मनोहर श्रीविग्रह वाली सिद्ध देवी हैं। महाविद्याओं में भगवती षोडशी का चौथा स्थान है। षोडशी महाविद्या को श्रीविद्या भी कहा जाता है। षोडशी महाविद्या के ललिता , त्रिपुरा , राज-राजेश्वरी , महात्रिपुरसुन्दरी , बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं।  लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्माणी - तीनों  लोकों की सम्प त्ति एवं शोभा का ही नाम श्री है।   ' त्रिपुरा ' शब्द का अर्थ बताते हुए-' शक्तिमहिम्न  स्तोत्र ' में कहा गया है-' तिसृभ्यो मूर्तिभ्यः पुरातनत्वात् त्रि पुरा। ’ अर्थात् जो ब्रह्मा, विष्णु एवं  महेश- इन तीनों से पुरातन हो वही त्रिपुरा हैं।  ' त्रिपुरार्णव ' ग्रन्थ में कहा गया है- नाडीत्रयं तु त्रिपुरा सुषुम्ना पिङ्गला त्विडा। मनो बुद्धिस्तथा चित्तं पुरत्रयमुदाहृतम्। तत्र तत्र वसत्येषा तस्मात् तु त्रिपुरा मता।। अर्थात् ' सुषुम्ना, पिंगला और इडा - ये तीनों नाडियां  हैं और मन, बुद्धि एवं चित्त - ये तीन पुर हैं। इनमें  रहने के कारण इनका नाम त्रिपुरा है ।'


श्री महा त्रिपुरसुन्दरी ललिता माँ के प्रादुर्भाव की कथा

भ गवती  राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्रीयन्त्र के रूप में आराधना करने की परम्परा पुरातन काल से ही चली आ रही है।  मान्यता है कि जगज्जननी माँ ललिता का प्रादुर्भाव माघमास की पूर्णिमा को हुआ था। आद्याशक्ति भगवती ललिताम्बा की जयंती तिथि को इन भगवती की विशेष आराधना की जाती है। श्रीयंत्र-निवासिनी भगवती षोडशी महाविद्या ही त्रिपुराम्बा, श्रीविद्या, ललिता, महात्रिपुरसुन्दरी, श्रीमाता, त्रिपुरा आदि नामों से सुविख्यात हैं। ' ललिता ' नाम की व्युत्पत्ति पद्मपुराण में कही गयी है- ' लोकानतीत्य ललते ललिता तेन चोच्यते। ' जो संसार से अधिक शोभाशाली हैं, वही भगवती ललिता हैं।


ज्ञानदायिनी सरस्वती माँ की अवतार कथा [श्रीसरस्वती स्तोत्रम्]

प्र तिभा की अधिष्ठात्री देवी भगवती सरस्वती हैं। समस्त वाङ्मय, सम्पूर्ण कला और पूरा ज्ञान-विज्ञान माँ शारदा का ही वरदान है। बुधवार को त्रयोदशी तिथि को एवं शारदीय नवरात्रों में ज्ञानदायिनी भगवती शारदा की पूजा-अर्चना-उपासना की जाती है। हमारे हिन्दू धर्मग्रंथों में माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् वसंत पंचमी को भगवती सरस्वती की जयंती का पावन दिन कहा गया है। बसन्त पंचमी के दिन माता शारदा की विशेष आराधना की जाती है, पूजन में पीले व सफेद पुष्प भगवती सरस्वती को अर्पित किये जाते हैं । वसन्त पञ्चमी के दिन भगवती सरस्वती के मंत्रों , पवित्र स्तोत्रों का पाठ किया जाता है , सफेद या पीले वस्त्र/रुमाल का दान किया जाता है।


पौष मास का माहात्म्य

ह मारे सनातन हिंदू धर्मग्रन्थों में प्रत्येक महीने के महत्व को भली प्रकार से दर्शाया गया है। हमारी हिंदू संस्कृति में बारहों मास व्रत-पर्व-त्यौहारों से युक्त हैं। आइये जानते हैं पौष मास के माहात्म्य को। पौष मास में धनु - संक्रान्ति होती है। अत: इस मास में भग वत् पूजन का विशेष महत्त्व है। दक्षिण भारत के मन्दि रों में धनुर्मास का उत्सव मनाया जाता है। मान्यता है कि  पौष कृष्ण अष्टमी को श्रा द्ध करके ब्रा ह्मण भोजन कराने से श्राद्ध का उत्तम फल मिलता है।


स्वप्नों का रहस्य

भ गवान  की बनाई अनोखी रचना है हमारा शरीर.. शरीर को आराम मिले इसलिए हम मनुष्य  नित्य शयन करते हैं और निद्रा में अक्सर स्वप्न देखा करते हैं.. कभी अच्छे तो कभी बुरे.. कुछ सपने याद रहते हैं तो कुछ याद नहीं रहते.. हमारे हिंदू धर्म की मान्यता है कि कुछ स्वप्न पूर्वाभास के रूप में होने से हमारे जीवन को भी प्रभावित किया करते हैं। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में ऐसी साधनाओं के वर्णन भी मिलते हैं जिनसे अपना भविष्य या किसी प्रश्न का जवाब प्राप्त कर जिज्ञासा को शांत किया जा सकता है।


भगवान कालभैरव की महिमा [कालभैरवाष्टक]

भ गवान भैरव  अधर्म मार्ग को अवरुद्ध कर, धर्म-सेतु की प्रतिष्ठापना करते हैं।  देवराज इन्द्र भगवान कालभैरव के पावन चरणकमलों की भक्तिपूर्वक निरन्तर सेवा करते हैं। भगवान भैरव व्यालरूपी विकराल यज्ञसूत्र  धारण करने वाले हैं । शिवपुराण में कहा गया है-  ' भैरवः पूर्णरूपो हि शङ्करस्य परात्मन:। ' (शतरुद्र० ८।२) स्वभक्तों को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करने वाले , काल को भी कँपा देने वाले , प्रचण्ड तेजोमूर्ति , अघटितघटन -सुघट-विघटन-पटु , काल भैरवजी भगवान्  शङ्कर के पूर्णावतार हैं , जिनका अवतरण ही पञ्चानन  ब्रह्मा एवं विष्णु के  गर्वापहरण के लिये हुआ था। भैरवी- यातना-चक्र में तपा-तपाकर पापियों के अनन्तानन्त पापों को  नष्ट कर देने की विलक्षण क्षमता इन्हें प्राप्त है।


कमला महाविद्या हैं सिद्धिदात्री-स्वरूपिणी वैष्णवी शक्ति

श्री की अधिष्ठात्री शक्ति महाविद्या कमला की जयन्ती तिथि दीपावली के दिन ही बतलाई गई है।  श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्ध के आठवें अध्याय में भगवती कमला के उद्भव की विस्तृत कथा आई है। देवताओं एवं असुरों द्वारा अमृत-प्राप्ति के उद्देश्य से किये गये समुद्र-मन्थन के फलस्वरूप इनका प्रादुर्भाव हुआ था । इन्होंने भगवान् विष्णु को पतिरूप में ग्रहण किया था। महाविद्याओं में ये दसवें स्थान पर परिगणित हैं। भगवती कमला वैष्णवी शक्ति हैं तथा भगवान विष्णु की लीला-सहचरी हैं अतः इनकी उपासना जगदाधार-शक्ति की उपासना है। 


दीपावली में भगवती महालक्ष्मी का पूजन विधान

का र्तिक कृष्ण अमावास्या को दीपावली की अद्भुत वेला में श्रीमहालक्ष्मी एवं भगवान गणेश की नूतन प्रतिमाओं का प्रतिष्ठापूर्वक विशेष पूजन किया जाता है। कुछ भक्तजन इस दिन 'कमला जयंती' पर महालक्ष्मी जी के लिए व्रत भी रखते हैं। महालक्ष्मी पूजन के लिये किसी चौकी अथवा कपड़े के पवित्र आसन पर गणेश जी के दाहिने भाग मेँ माता महालक्ष्मी को स्थापित करना चाहिये। पूजन के दिन घर को स्वच्छ कर पूजन-स्थान को भी पवित्र कर लेना चाहिये एवं स्वयं भी पवित्र होकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सायंकाल इनका पूजन करना चाहिये। मूर्तिमयी श्रीमहालक्ष्मीजी के पास ही किसी पवित्र पात्र मेँ केसरयुक्त चन्दन से अष्टदल कमल बनाकर उस पर द्रव्य-लक्ष्मी (रुपयों) - को भी स्थापित करके एक साथ ही दोनों की पूजा करनी चाहिये। पूजन करने वाले को चाहिये कि वह पूजन के लिये पूजाघर में सामग्री लेकर जल्दी (सायं पांच बजे के आसपास कोई शुभ मुहूर्त हो तो उसी समय) उपस्थित हो क्योंकि लक्ष्मीपूजन आदि के बाद दीपमालिका पूजन करके ही घर के प्रत्येक कोने में दीप सजाने होते हैं, इस दिन शाम को अंधेरा होते ही घर व घर के चारों ओर प्रकाश की सुंदर व्...


गोवत्स द्वादशी व्रत का विधान

का र्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी ' गोवत्सद्वादशी ' के नाम से जानी जाती है। इस व्रत में भक्तिपूर्वक गोमाता का पूजन किया जाता है। इस व्रत में प्रदोषव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है। यदि प्रदोषव्यापिनी तिथि दोनों दिन हो तो ' वत्सपूजा व्रतश्चैव कर्तव्यौ प्रथमेsहनि ' के अनुसार, 'पूर्वा' को ग्रहण करना चाहिए, यह बहुतों का कहना है किन्तु कोई 'परा'(दूसरी) भी कहते हैं। दोनों दिन प्रदोषव्यापिनी न हो तो 'परा' तिथि लेनी चाहिये। 


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